Tuesday, August 9

आशा-भ्रम

मेरे मन को मैने फूल समझा,
हर डग लिया महक की ख्वाइश में,
पर मालूम क्या था, छुपते हैं बलों में
ज़िंदगी के सात सबेरे, ख़्वाबों की सिमटन में,

वे आते हैं बिन-बुलाए, दूर-अदूर से
रिश्ता जोड़ते हुए एक पल में ऐसा,
कि बरसों की धूल मैं करता हूँ बरामद,
जैसे हुई हो चकनाचूर रात भर ऐ ओस,

एक कटु व्यंग्य, एक मत में खोई नज़र,
मैं-मैं का मात्र वह एक लघु अस्त्र
निकले जो क्षय-ग्रस्त स्वभाव से, निरुद्देश्य,
पर मुझे याद दिलाए, खिलने का मौसम था ही नहीं|

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